An abridged version of my Seminar piece on Narendra Modi and crony capitalism translated into Hindi by Amar Ujala newspaper.
मंगलवार, 1 अप्रैल 2014
सिद्धार्थ वरदराजन
नरेंद्र मोदी आखिर किसका प्रतिनिधित्व करते हैं, और भारतीय राजनीति में उनके उदय के क्या मायने हैं? 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों का बोझ अब भी उनके कंधों पर है। ऐसे में, सांप्रदायिक राजनीति के ऐतिहासिक उभार के तौर पर गुजरात के मुख्यमंत्री का राष्ट्रीय पटल पर उदय होते देखना खासा दिलचस्प रहेगा। संघ परिवार के वफादार और हिंदू मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा आज अगर उनका भक्त बना है, तो इसकी वजह उनकी कट्टर छवि है। इसलिए जब वह गुजरात में हुए दंगों पर भले ही प्रतीकात्मक रूप में ही सही, खेद जताने तक को राजी न हुए, तो उनके इन समर्थकों ने इसे उनकी कमजोरी के बजाय ताकत की तरह देखा।
इसके बावजूद आज मोदी जिस पायदान पर पहुंच गए हैं, उसकी वजह यह नहीं कि देश में सांप्रदायिकता की लहर जोर मार रही है, बल्कि इसलिए कि भारत का कॉरपोरेट क्षेत्र अधीर हो रहा है। मजबूत होती उनकी स्थिति को दर्शाते हर जनमत सर्वेक्षण के बाद बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज का उत्साह देखते ही बनता है। हाल ही में जेम्स क्रेबट्री ने फाइनेंशियल टाइम्स में अडानी इंटरप्राइजेज को होने वाले भारी मुनाफे का उल्लेख किया है। पिछले महीने के दौरान इस कंपनी के शेयरों में 45 फीसदी से ज्यादा उछाल आया है। जबकि इस दौरान सेंसेक्स में सात फीसदी की ही बढोतरी देखने को मिली। विश्लेषक इसकी एक वजह यह मान रहे हैं कि निवेशकों को भरोसा है कि चुनाव के बाद यदि मोदी की सरकार बनती है, तो पर्यावरणीय अड़चनों के बावजूद अडानी इंटरप्राइजेज को मुंद्रा बंदरगाह के मामले में अनुमति मिल जाएगी।
‘क्लीयरेंस’ (सरकारी अनुमति) शब्द सुनने में भले ही सामान्य लगे, लेकिन अगर नरेंद्र मोदी के संदर्भ में देखें, तो इसके कहीं व्यापक मायने हैं। दरअसल बीमा और रिटेल क्षेत्र को खोलने समेत विदेशी निवेशकों की सभी मांगों को पूरा करने के लिए पूंजी के साथ मनचाहा बर्ताव करने की छूट देने की मोदी की मंशा, इस एक शब्द में छिपी हुई है। इतना ही नहीं, पर्यावरणीय अड़चनों, आजीविका या आवास से जुड़े संकटों या सामुदायिक हितों को भी मोदी की इस आकांक्षा के आड़े आने की इजाजत नहीं होगी। इस निर्णायक भूमिका के वायदे के कारण मोदी न सिर्फ भारत, बल्कि पूरी दुनिया के बड़े व्यापार के लिए आकर्षण बन गए हैं। मद्रास स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के एन एस सिद्धार्थन कहते हैं, ‘आज के बिजनेस माहौल में केवल विनिर्माण के जरिये मुनाफा कमाने की सोचना बेमानी हो गया है। दरअसल इसका तरीका सरकारी स्वामित्व में संसाधनों के दोहन में छिपा हैं।’ गौरतलब है कि इन संसाधनों में केवल कोयला, स्पेक्ट्रम या लोहा ही शामिल नहीं हैं, बल्कि जमीन और पानी भी इसी के तहत आते हैं।
2009 में संपन्न ‘वाइब्रेंट गुजरात’ सम्मेलन में भारत के दो सबसे बड़े उद्योगपतियों अनिल अंबानी और सुनील मित्तल ने खुले तौर पर प्रधानमंत्री पद की दौड़ में मोदी का समर्थन किया था। तब अनिल अंबानी ने कहा था, ‘नरेंद्र भाई ने गुजरात का भला किया है, और जरा सोचिए, जब वह देश का नेतृत्व संभालेंगे, तो क्या होगा।’ वहां मौजूद रतन टाटा ने भी केवल दो दिन के भीतर नैनो के लिए जमीन की व्यवस्था करने वाले मोदी की तारीफ की थी।
इसके दो वर्ष बाद 2011 में हुए इसी सम्मेलन में मुकेश अंबानी ने कहा, ‘गुजरात एक स्वर्ण दीपक की भांति जगमगा रहा है, और इसकी वजह नरेंद्र मोदी की दूरदृष्टि है।’ 2013 में अनिल अंबानी ने मोदी को राजाओं का राजा कह कर संबोधित किया था।
राजनीतिक और व्यापारिक हितों के बीच मजबूत होते रिश्तों में महत्वपूर्ण मोड़ 2010 में नीरा राडिया टेप के जरिये आया था। उसने व्यापारियों, राजनेताओं, नीति-नियंताओं और मीडिया के बीच पनपते गठजोड़ का पर्दाफाश किया। सर्वोच्च न्यायालय और कैग के हालिया रवैये को देखते हुए जब यह लगने लगा कि सार्वजनिक संसाधनों की लूट करना अब इतना आसान नहीं होगा, कॉरपोरेट भारत ने मनमोहन सरकार को कोसना शुरू कर दिया।
2004 में वाजपेयी सरकार की हार के पीछे गुजरात दंगों को रोक पाने में मोदी की नाकामी को मीडिया ने जिम्मेदार माना था। ऐसे में उनके सामने बड़ा सवाल यह था कि सांप्रदायिक हिंसा के विरोध में खड़े शहरी मध्य वर्ग को इस बात पर कैसे राजी किया जाए कि देश की सारी समस्याओं का समाधान मोदी ही कर सकते हैं। यहीं से गुजरात के विकास मॉडल का मिथक खड़ा किया गया। 2013 में वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलन में आनंद महिंद्रा ने कहा, ‘आज लोग गुजरात में विकास के चीन सरीखे मॉडल की बात कर रहे हैं। लेकिन वह दिन दूर नहीं जब चीन में लोग गुजरात के विकास मॉडल की बात करेंगे।’
मोदी की तारीफ के पीछे कॉरपोरेट भारत का विकास के चीनी मॉडल के प्रति छिपा प्रेम दिखता है। क्या है यह मॉडल? यहां ऐसे विकास की बात है, जिसमें जमीन, खदान और पर्यावरण के लिए क्लीयरेंस पाना बेहद आसान होगा। इसमें गैस की कीमत जैसे असहज सवाल नहीं किए जाते। कांग्रेस से बेरुखी के लिए जो भ्रष्टाचार कारण बना है, उसे खत्म करने में कॉरपोरेट भारत की दिलचस्पी नहीं है। दरअसल मिलीभगत वह तरीका है, जिस पर हमारी बड़ी कंपनियों को कारोबार करने पर एतराज नहीं। यह पूंजीवादी भारत का चरित्र बन चुका है। और वे मोदी की ओर देख रहे हैं कि वह इस व्यवस्था को निर्णायक तथा स्थायित्व के साथ उनके अनुकूल तरीके से चलाएंगे।
(लेखक द हिंदू के पूर्व संपादक और सेंटर फॉर पब्लिक अफेयर्स ऐंड क्रिटिकल थ्योरी, नई दिल्ली के सीनियर फेलो हैं)